विभिन्न धर्मों से योग का क्या है संबंध…
धर्म के सत्य, मनोविज्ञान और विज्ञान का सुव्यवस्थित रूप है योग. योग की धारणा ईश्वर के प्रति आपमें भय उत्पन्न नहीं करती और जब आप दुःखी होते हैं तो उसके कारण को समझकर उसके निदान की चर्चा करती है. योग पूरी तरह आपके जीवन को स्वस्थ और शांतिपूर्ण बनाए रखने का एक सरल मार्ग है. यदि आप स्वस्थ और शांतिपूर्ण रहेंगे तो आपके जीवन में धर्म की बेवकूफियों के लिए कोई जगह नहीं बचेगी.
‘षड्दर्शन’ से ही दुनिया के सभी धर्मों का आधार है. ये ‘षड्दर्शन’ है:- 1.न्याय, 2.वैशेषिक, 3.सांख्य, 4.योग, 5.मीमांसा और 6.वेदांत.
इसमें से योग की बातें आपको सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में मिल जाएगा. योग का अर्थ सिर्फ जोड़ या मिलन नहीं. योग शब्द ‘युज् समाधौ’ धातु से ‘घञ्’ से प्रत्यय होकर बना है. अत: इसका अर्थ जोड़ न होकर समाधि ही माना जाना चाहिए. समाधि नाम चित्तवृत्तिनिरोध की क्रिया शैली का है. योग का प्रचलन प्रत्येक धर्म में विद्यमान है, आइये जानते हैं इसके बारे में विस्तार से-
हिन्दू धर्म और योग
मूलत: योग का वर्णन सर्वप्रथम वेदों में ही हुआ है लेकिन यह विद्या वेद के लिखे जाने से 15000 ईसा पूर्व के पहले से प्रचलन में थी, क्योंकि वेदों की वाचिक परंपरा हजारों वर्ष से चली आ रही थी. अत: वेद विद्या उतनी ही प्राचीन है जितना प्राचीन ज्योतिष या सिंधु सरस्वती सभ्यता है. वेद, उपनिषद, गीता, स्मृति ग्रंथ और पुराणों में योग का स्पष्ट उल्लेख मिलता है. योग की महिमा और यज्ञों की सिद्धि के लिए उसकी परमावश्यकता बतलायी गयी है. इसी सिद्धांत का ऋक् संहिता में स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है.
यस्मादूते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन.
स धीनां योगमिन्वति.. – (ऋक् संहिता मंडल 1, सूक्त 18, मंत्र 7)
अर्थात योग के बिना विद्वान का कोई भी यज्ञकर्म नहीं सिद्ध होता, वह योग क्या है सो चित्तवृत्ति निरोधरूपी योग या एकाग्रता से समस्त कर्तव्य व्याप्त हैं, अर्थात सब कर्मों की निष्पत्ति का एकमात्र उपाय चित्तसमाधि या योग ही है.
यहूदी धर्म और योग
हजरत मूसा ने कुछ यम-नियमों के पालन पर जोर दिया था. मूसा की दस आज्ञाएं (टेन कमांडमेंट्स) यहूदी संप्रदाय का आधार है. यह वेद और योग से ही प्रेरित हैं. यहूदी, ईसाई और इस्लामकी मूल आध्यात्मिक उपासना में योग ही है।
- मैं प्रभु तेरा ईश्वर हूं। प्रभु अपने ईश्वर की आराधना करना, उसको छोड़ और किसी की नहीं।
- प्रभु अपने परमेश्वर का नाम व्यर्थ न लेना। (उचित कारण के बिना मेरा नाम न लेना)
- प्रभु का दिन पवित्र रखना।
- माता-पिता का आदर करना। (अपने माता-पिता को प्रेम करना और उनकी आज्ञाओं का पालन करना)
- मनुष्य की हत्या न करना।
- व्यभिचार न करना। (एक पवित्र जीवन बिताना)
- चोरी न करना।
- झूठी गवाही न देना। (झूठ नहीं बोलना)
- पर-स्त्री की कामना न करना।
- पराए धन(दूसरों के पास जो कुछ है, उसकी लालसा न करना)पर लालच न करना।
जैन धर्म और योग
जैन धर्म का योग से गहरा नाता है. उपरोक्त लिखे में योग के अंग यम और नियम ही जैन धर्म के आधार स्तंभ है. जैन धर्म में पंच महाव्रतों का बहुत महत्व है:- 1.अहिंसा (हिंसा न करना), 2.सत्य, 3.अस्तेय (चोरी न करना), 4.ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (धन का संग्रह न करना). गृहस्थ अणुव्रती होते हैं, मुनि महाव्रती.
पारसी धर्म और योग
महात्मा जरथुस्त्र भी एक योगी ही थे. पारसी धर्म का वेद और आर्यों से गहरा नाता है. अत्यंत प्राचीन युग के पारसियों और वैदिक आर्यों की प्रार्थना, उपासना और कर्मकांड में कोई भेद नजर नहीं आता. वे अग्नि, सूर्य, वायु आदि प्रकृति तत्वों की उपासना और अग्निहोत्र कर्म करते थे.
बौद्ध धर्म और योग
बुद्ध की हठयोग संबंधी साधनाओं एवं क्रियाओं की पहल ‘गुहासमाज’ नामक तंत्र ग्रंथ से मिलती है और यह ग्रंथ ईस्वी सन् की तीसरी शताब्दी में लिखा गया है. उक्त ग्रंथ के अट्ठारहवां अध्याय बड़े महत्व का है जिसमें बौद्ध धर्म में प्रचलित योग साधनाओं तथा उनके उद्देश्य एवं प्रयोजन का वास्तविक परिचय मिलता है. योग के छह अंगों के नाम इसी ग्रंथ में मिलते हैं, प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायम, धारणा, अनुस्मृति और समाधि.
इसके अलावा बौद्ध धर्म ने योग को बहुत अच्छे से आष्टांगिक मार्ग में व्यस्थित रूप दिया है. इसी से प्रेरित होकर संभवत पतंजलि ने अष्टांग योग को लिखा होगा. ध्यान और समाधि योग के ही अंग है. चित्तवृत्ति का निरोध आष्टांगिक मार्ग के द्वारा भी हो सकता है. भगवान बुद्ध ने उनके काल में सत्य को जानने के लिए योग और साधना की संपूर्ण प्रचलित विधि को अपनाया था अंत में उन्होंने ध्यान की एक विशेष विधि द्वारा बुद्धत्व को प्राप्त किया था.
ईसाई धर्म और योग
ईसाई धर्म के लोग चंगाई सभा करके लोगों को ठीक करने का दावा करते हैं. दरअसल ये योग की प्राणविद्या, कुंडलिनी योग और रेकी का ही कार्य है. ईसा मसीह इसी विद्या द्वारा लोगों को ठीक कर देते थे. बपस्तिमा देना, सामूहिक सस्वर प्रार्थना करना यह योग का ही एक प्रकार है.
इस्लाम धर्म और योग
हजरत. मुहम्मद स.अलै. ने प्रार्थना और प्रेम इन मुद्दों को और परिष्कृत करते हुए परमात्मा को संपूर्ण शरणशीलता और उसकी सामूहिक प्रार्थना पर जोर दिया. इस्लाम इस अरबी शब्द का अर्थ ही परमात्मा को संपूर्ण शरणागत होना है. योग में ईश्वर प्राणिधान का बहुत महत्व है.
अशरफ एफ निजामी ने एक किताब लिखी थी जिसमें उन्होंने योगासन और नमाज को एक ही बताया था. जब नमाज कायम के रूप में अदा की जाती है तो वह ‘वज्रासन’ होता है. सजदा करने के लिए जिस तरह नमाजी झुकता है तो उसे शंशकासन कहते हैं. जिस तरह नमाज पढ़ने से पहले वजूद की प्रथा है उसी तरह योग करने से पहले शौच, आचमन आदि किया जाता है. नमाज से पहले इंसान नियत करता है तो योग से पहे ‘संकल्प’ करता है.
सिख धर्म और योग
सिख धर्म में कीर्तन, जप, अरदास आदि अनेक बातें योग की ही देन है. सभी गुरु एक महानयोगी ही थे. साहस, शुचिता और सत्य की सीख देने वाला महान सिख धर्म संपूर्ण योग ही है. ‘सिख’ नाम दरअसल संस्कृत के ‘शिष्य’ शब्द से ही निकला है.
योग एक ऐसा मार्ग है जो विज्ञान और धर्म के बीच से निकलता है वह दोनों में ही संतुलन बनाकर चलता है. योग के लिए महत्वपूर्ण है मनुष्य और मोक्ष. मनुष्य को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रखना विज्ञान और मनोविज्ञान का कार्य है और मनुष्य के लिए मोक्ष का मार्ग बताना धर्म का कार्य है किंतु योग यह दोनों ही कार्य अच्छे से करना जानता है इसलिए योग एक विज्ञान भी है और धर्म भी.
साभार: कल्याण के दसवें वर्ष का विशेषांक योगांक