जैन धर्म में कम उम्र के युवा सबकुछ छोड़कर क्यों ले लेते हैं संन्यास ?
महाराष्ट्र के कोल्हापुर के मोक्षेष शाह जैन संन्यासी बनने वाले हैं। मूलतः गुजरात के रहने वाले मोक्षेष 20 अप्रैल को अहमदाबाद के अमियापुर में दीक्षा लेंगे। जैन धर्म में इतनी कम उम्र में सन्यास लेने वाले यह पहले युवा नहीं है, इससे पहले भी कई जैन धर्म के युवाओं ने ऐसा किया है।
मध्य प्रदेश के नीमच के एक जैन युवा (श्वेताम्बर) दम्पति ने अपनी तीन साल की बेटी और लगभग 100 करोड़ की सम्पति त्यागकर सन्यासी होकर संत और साध्वी जीवन जीने का निर्णय लिया। हालाँकि पारिवारिक दवाब के बाद बच्ची की ममता को देखते हुए माँ ने यह विचार त्याग दिया और पिता ने 23 सितम्बर 2017 को साधुमार्गी जैन आचार्य रामलाल जी महाराज के सानिध्य में गुजरात के सूरत शहर में दीक्षा ली।
ठीक उसी प्रकार 2017 में गुजरात बोर्ड में 12वीं 99.9 फ़ीसदी मार्क्स प्राप्त करने वाले वर्षिल शाह ने 12वीं के बाद ही संन्यास ग्रहण कर लिया।
इसके अतरिक्त और भी कई कम उम्र के युवा सन्यास धारण कर चुके हैं। यहाँ सवाल यह उठता है कि जिस उम्र में युवा पीढ़ी अपने करियर के बारे में विचार करती है या फिर खेलकूद या ऐशोआराम की जीवनशैली अपनाती है उस उम्र में जैन धर्म की युवा पीढ़ी संन्यास की ओर आकर्षित क्यूँ हो रही है। इसके लिए हमें सबसे पहले जैन धर्म को समझने की ज़रुरत होगी।
क्या है जैन धर्म
जैन धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है। ‘जैन’ उन्हें कहते हैं, जो ‘जिन’ के अनुयायी हों, ‘जिन’ शब्द बना है ‘जि’ धातु से, ‘जि’ यानी जीतना, ‘जिन’ अर्थात् जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं ‘जिन’। जैन धर्म अर्थात् ‘जिन’ भगवान का धर्म, वस्त्र-हीन तन, शुद्ध शाकाहारी भोजन और निर्मल वाणी एक जैन-अनुयायी की पहली पहचान है। यहाँ तक कि जैन धर्म के अन्य लोग भी शुद्ध शाकाहारी भोजन ही ग्रहण करते हैं तथा अपने धर्म के प्रति बड़े सचेत रहते हैं।
जैन धर्म के सिद्धांत
साभार – https://medium.com/bliss-of-wisdom
आइए जैन धर्म के 5 मूलभूत सिद्धांतों का विश्लेषण करते हैं। यह 5 सिद्धांत क्रमबद्ध रूप से हमें इस प्रकार जीवन जीना सिखाते हैं जिससे हम अपने भीतर रही अनंत शांति एवं आनंद की अनुभूति कर सकें।
1. अहिंसा :
जीवन का पहला मूलभूत सिद्धांत देते हुए भगवान महावीर ने कहा है ‘अहिंसा परमो धर्म’ – इस अहिंसा में समस्त जीवन का सार समाया है, इसे हम अपनी सामान्य दिनचर्या में 3 आवश्यक नीतियों का पालन कर समन्वित कर सकते हैं।
क] कायिक अहिंसा (कष्ट न देना): यह अहिंसा का सबसे स्थूल रूप है, जिसमें हम किसी भी प्राणी को जाने-अनजाने अपनी काया द्वारा हानि नहीं पहुंचाते। मानव जीवन की अमूल्यता इसी तथ्य में निहित है कि उसके पास दूसरों को कष्ट से बचाने की अद्भुत शक्ति है। अतः स्थूल रूप से अहिंसा को मानने वाले किसी को भी पीड़ा, चोट, घाव आदि नहीं पहुँचाते।
ख] मानसिक अहिंसा (अनिष्ट नहीं सोचना): अहिंसा का सूक्ष्म स्तर है किसी भी प्राणी के लिए अनिष्ट, बुरा, हानिकारक नहीं सोचना। हिंसा से पूरित मनुष्य सामान्य रूप से दूसरों को क्षति पहुँचाने की वृत्ति से भरा होता है, लेकिन अहिंसा के सूक्ष्म स्तर पर किसी की भी भावनाओं को जाने-अनजाने ठेस पहुँचाने का निषेध है।
ग] बौद्धिक अहिंसा (घृणा न करना): अहिंसा के सूक्ष्तम स्तर पर ऐसा बौद्धिक विकास होता है कि जीवन में आने वाली किसी भी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति के प्रति घृणा के भाव का त्याग हो जाता है। हम निरंतर अपने आस-पास रही उन वस्तु, व्यक्ति, परिस्थितियों के प्रति घृणाभाव से भरे रहते हैं, जो हमारे प्रतिकूल हों अथवा जिन्हें हम अपने अनुकूल न बना पा रहें हों। यह घृणा की भावना हमारे भीतर अशांति, असंतुलन व असामंजस्य उत्पन करती है। अतः अहिंसा का सूक्ष्मतर स्तर पर प्रयोग करने के लिए हमें किसी भी प्राणी से घृणा न करते हुए जीवन की हर परिस्थिति को सहर्ष स्वीकार करने की कला सीखनी होगी। हमें जीवन में रही वस्तु-व्यक्ति-परिस्थिति को हटाने का प्रयत्न नहीं करना अपितु उनके प्रति रहा अपना घृणा भाव हटाना है।
2. सत्य :
धर्म जगत में सत्य के सिद्धांत की व्याख्या सबसे अधिक भ्रांतिपूर्ण प्रकार से की जाती है। हम अपने बच्चों व युवा पीढ़ी को जैन सिद्धांत समझाते हुए हमेशा सत्य बोलने की प्रेरणा देते हैं, परन्तु क्या दूसरी व तीसरी कक्षा में पढ़ाया जाने वाला नीति का यह सूत्र भगवान महावीर द्वारा दिया गया महाव्रत हो सकता है ? अवश्य ही भगवान के सत्य महाव्रत के भीतर गहरा आध्यात्मिक आशय समाहित है। इसलिए ‘श्रीमद राजचंद्र मिशन’ में इस सिद्धांत का अभिप्राय मानते है ‘सही चुनाव करना’। हमें अपने मन और बुद्धि को इस प्रकार अनुशासित व संयमित करना है कि जीवन की प्रत्येक परिस्तिथि में हम सही क्रिया व प्रतिक्रिया का चुनाव करें।
अतः ‘सत्य’ सिद्धांत का अर्थ है..
1. उचित व अनुचित में से उचित का चुनाव करना
2. शाश्वत व क्षणभंगुर में से शाश्वत का चुनाव करना
जब गुरु द्वारा प्रदत्त शिक्षाओं को हम अपने जीवन का आधार बनाते हैं तो उपरोक्त कथित सत्य का सार हमारे मन व बुद्धि को शुद्ध करते हुए, जीवन की प्रत्येक अवस्था में हमें उचित व शाश्वत का चुनाव करने की सहज प्रेरणा देता है।
3. अचौर्य :
अचौर्यचेतना के उन्नत शिखर से दिए गए भगवान महावीर के ‘अचौर्य महाव्रत‘ को हम संसारी जीव अपनी सामान्य बुद्धि द्वारा पूर्णतया समझ नहीं पाते। दूसरों की वस्तुएँ न चुराना ही इसका अभिप्राय मानते रहे हैं परन्तु भगवान अपनी पूर्ण जागृत केवलज्ञानमय अवस्था से इतना उथला संदेश नहीं दे सकते. इस महाव्रत का एक दूसरा ही गहरा प्रभावशाली आयाम है.
स्वरुप को प्राप्त हुए भगवान का गहन प्रतीकात्मक संदेश हम तभी समझ पाते हैं जब हम अपनी चेतना को ईश्वरीय चेतना के साथ संरेखित करते हैं। अन्यथा अपनी सामान्य बुद्धि से इन प्रभावशाली शब्दों का केवल ऊपरी अर्थ पकड़ कर पूरा जीवन भ्रम में ही व्यतीत कर देते हैं.
अतः अचौर्य सिद्धांत का अर्थ केवल दूसरों की वस्तुएँ चुराना नहीं अथवा हड़पने की सोचना नहीं, मात्र इतना नहीं अपितु इसका गहन आध्यात्मिक अर्थ है , शरीर-मन-बुद्धि को मैं नहीं मानना। मैं शुद्धचैतन्य स्वरुप हूँ तथा शरीर-मन-बुद्धि इस मानव जीवन का यापन करने हेतु मात्र साधनरुप हैं जिनके द्वारा हम अपने यथार्थ स्वरुप तक पहुँच सके। जैसे जल से भरी मटकी का कार्य केवल जल को अपने भीतर संभालना है ;मटकी जल नहीं है। प्यास जल से बुझती है, मटकी से नहीं। इसी प्रकार चेतना इस शरीर-मन-बुद्धि में व्यापक है परंतु वह ‘मैं’ अर्थात स्वरुप नहीं है। अपनी अज्ञान अवस्था से बाहर आकर जब हम अपने शुद्ध आत्मिक स्वरुप को ही ‘मैं व मेरा’ मानते हैं तभी भगवान द्वारा प्रदत्त अचौर्य के सिद्धांत का पालन होता है।
4. ब्रह्मचर्य :
यह सिद्धांत उपरोक्त 3 सिद्धांतों — अहिंसा, सत्य, अचौर्य के परिणामस्वरूप फलीभूत होता है। इसका शाब्दिक अर्थ है ‘ब्रह्म+चर्य‘ अर्थात ब्रह्म [ चेतना ] में स्थिर रहना।
जब मनुष्य उचित - अनुचित में से उचित का चुनाव करता है एवं अनित्य शरीर-मन-बुद्धि से ऊपर उठकर शाश्वत स्वरुप में स्थित होता है तो परिणामतः वह अपनी आनंद रुपी स्व सत्ता के केंद्र बिंदु पर लौटता है जिसे ‘ ब्रह्मचर्य ‘ कहा जाता है। शरीर-मन-बुद्धि को ‘मैं’ मानने की धारणा से बाहर निकलने के परिणामरूप शारीरिक साहचर्य व संभोग की चाहतें गिरती हैं-इस अवस्था को हम ब्रह्मचर्य मान सकते हैं, क्योंकि जब अपने ही शरीर से मोह (मेरापना) नहीं रहता है तब किसी शरीर से भोग की तृष्णा को छोड़ पाना अत्यंत सरल हो जाता है।
5. अपरिग्रह :
जो स्व स्वरुप के प्रति जागृत हो जाता है और शरीर-मन-बुद्धि को अपना न मानते हुए जीवन व्यतीत करता है उसकी बाह्य दिनचर्या संयमित दिखती है, जीवन की हर अवस्था में अपरिग्रह का भाव दृष्टिगोचर होता है तथा भगवान महावीर के पथ पर उस भव्यात्मा का अनुगमन होता है।
अपरिग्रह के निम्नलिखित तीन आयाम हैं..
1] वस्तुओं का अपरिग्रह: जैसे-जैसे हम शाश्वत चैतन्य सत्ता की निकटता में आते हैं, वैसे-वैसे क्षणिक सांसारिक वस्तुओं का मोह छूटता है। अतः वस्तुओं की उपलब्धता अथवा गैर उपलब्धता दोनों ही स्थितियों में समान भाव रहता है, तथा मानसिक व शारीरिक व्याकुलता नहीं होती।
2] व्यक्तिओं का अपरिग्रह: संसार की लीला में व्यक्ति आते हैं; अपनी भूमिका निभाते हैं व चले जाते हैं. जिसे इस स्वांग की वास्तविकता का बोध हो जाता है वह इस अभिनय के पार जाकर अपने निज स्वरूप को पहचान लेता है. जैन के रूप में जीवन व्यतीत करता हुआ मनुष्य व्यक्तिओं रूपी परिग्रह में मूर्छित नहीं रहता. वह चाहे जहाँ भी रहे -जनसमूह में अथवा एकांत में, हमेशा प्रसन्नचित रहता है क्योंकि उसकी शांति व आनंद बाह्य जगत से नहीं अपितु भीतर स्वात्म के अनंत स्रोत से उत्पन्न होती है।
3] विचारों का अपरिग्रह: जागृत अवस्था को प्राप्त हुए मनुष्य सर्व समावेशी मानसिकता धारण करते हुए विचारों के आग्रह का त्याग करते हैं. वे भगवान महावीर द्वारा प्रणीत अनेकांतवाद व स्याद्वाद के सिद्धांत को हृदयगत करते हुए सभी के विचारों का सम्मान करते हैं. वे मानते हैं कि कोई भी विचार परम या संपूर्ण नहीं हो सकता क्योंकि केवल शुद्ध चैतन्य स्वरुप ही परम व संपूर्ण है जिसे विचारों के पार जाकर ही अनुभव किया जा सकता है।
इस प्रकार जैन धर्म के यह 5 सिद्धांत जीवन व्यापन की ऐसी शैली प्रदान करते हैं जिससे हम इस मानवीय शरीर से मुक्ति मार्ग की ओर अग्रसर हो सकें, आत्म-निरीक्षण करते हुए अपने शुद्ध चैतन्य आत्म-अनुभव तक पहुँच सकें।
हमें भगवान के दिए हुए बोध का अवमूल्यन न करते हुए अपनी प्रज्ञा द्वारा गहन चिंतन व अभ्यास करते हुए इस शरीर-मन-बुद्धि के पार रही शुद्ध चैतन्य रुपी स्वसत्ता का अनुभव इसी मनुष्य जीवन में अवश्य करना चाहिए।
साभार – https://medium.com/bliss-of-wisdom
महावीर के उपदेश
महावीर कहते थे कि जो भी जैन निर्वाण को प्राप्त करना चाहता है उसको स्वयं के आचरण, ज्ञान और विश्वास को शुद्ध करना चाहिए और पाँच प्रतिज्ञाओं का पालन अवश्य करना चाहिये। जैन धर्म में तप की बहुत महिमा है। उपवास को भी एक तप के रूप में देखा गया है। कोई भी मनुष्य बिना ध्यान, अनशन और तप किये अन्दर से शुद्ध नहीं हो सकता। यदि वह स्वयं की आत्मा की मुक्ति चाहता है तो उसे ध्यान, अनशन और तप करना ही होगा। महावीर ने पूर्ण अहिंसा पर जोर दिया और तब से ही “अहिंसा परमो धर्मः” जैन धर्म में एक प्रधान सिद्धांत माना जाने लगा।
क्यों कर रहा है युवाओं को संन्यास आकर्षित ?
यहाँ सिर्फ एक धर्म विशेष के युवाओं की बात नहीं कर रहे बल्कि हम बात कर रहे हैं आज की युवा पीढ़ी की. सिर्फ जैन धर्म के युवा ही नहीं बल्कि अन्य धर्म के युवा भी संन्यास धारण करना चाहते है।
जैन धर्म में संन्यास क्या है? इस विषय पर अहिंसा विश्व भारती के संस्थापक आचार्य लोकेश मुनिजी से रिलिजन वर्ल्ड ने बातचीत की। उन्होंने बताया कि, “जैन धर्म में दीक्षा के पीछे जो मूल भाव है वह होता है आत्मकल्याण और जनकल्याण। भगवान महावीर ने दीक्षा को “तीर्णानम कार्याणम” का मार्ग बताया है। तीर्णानम यानि अपना आत्म कल्याण और कार्याणम यानि जन कल्याण के लिए भी सहयोगी बनते हैं”।
आचार्य लोकेश मुनिजी आगे कहते हैं की जैन दर्शन के अनुसार “मोक्ष वह अवस्था है जब व्यक्ति पूरी तरह से लोभ, मोह, माया, राग-द्वेष इन सबसे मुक्त हो जाता है, तब जिस अवस्था को प्राप्त करता है, उसे मोक्ष कहते हैं। मोक्ष प्राप्ति का अर्थ है फिर संसार में वह परिभ्रमण नहीं करता है। सभी ग्रंथों में 84 लाख जीवा योनि जो मानी गयी है कि अलग अलग जगह व्यक्ति जन्म धारण करता है, सभी जगह परिभ्रमण करता है। मोक्ष वह अवस्था है जहाँ पहुँचने के बाद मनुष्य फिर से परिभ्रमण नहीं करता है, वो आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वोच्च अवस्था हैं”।
दीक्षा धारण करने के बाद दीक्षधारी के जीवन में काफी बड़ा बदलाव आता है, वो सांसारिक मोह माया का त्याग कर सन्यासी बनता है। आचार्य लोकेश मुनि कहते हैं कि हमारी दृष्टि के पीछे ही सृष्टि का निर्माण होता है। हमारी दो प्रकार की दुनिया है एक इन्द्रिय जगत की दुनिया और दूसरी अतीन्द्रिय जगत की दुनिया है। एक देहलक्षी वृत्ति है और दूसरी आत्म्लक्षी वृत्ति है। दीक्षा का अर्थ है देह से आत्मा की ओर प्रस्थान करना। जब उस जगह पर व्यक्ति पहुँचता है तो उसका नजरिया बदल जाता है, उसकी सोच में बहुत बड़ा बदलाव आता है। हरेक व्यक्ति के जीवन में कष्ट, पीड़ा, वेदना और दुःख आता है सांसारिक व्यक्ति उन क्षणों में दुखी बन जाता है, वहीँ आध्यात्मिक व्यक्ति घटना को जानता है, किन्तु उसको भोगता नहीं है। उसका दृष्टिकोण अलग होने कारण ऐसा होता है। जैसे वियोग की स्थिति आती है माता-पिता का वियोग, मित्र का वियोग, पत्नी का वियोग। यही वियोग संन्यासी के जीवन में भी आता है। जहाँ सामान्य व्यक्ति वियोग के क्षणों में दुखी हो जाता है, वहीँ सन्यासी इन चीज़ों से प्रभावित नहीं होते हैं। एक अलग दुनिया होती है वो, एक अलग दृष्टि होती है उनके देखने की, उनकी सोच अलग होती है। इसलिए दीक्षा धारण के बाद उनके जीवन में बहुत बड़ा बदलाव आता है।
जैन मुनि विवेक मुनि जी के अनुसार, “जैन धर्म में संन्यास मुनि दीक्षा या साधिवी दीक्षा के रूप में लिया जाता है ,जिसमें पांच महावृत अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का मुनि को पालन करना होता है और संन्यास की मर्यादा, साधना का उसे पालन करना होता है”।
मोक्ष आकर्षण के विषय में विवेक मुनि जी कहते हैं, “मोक्ष आत्मा का जन्मसिद्ध अधिकार है, जब आत्मा पाप पुण्य रुपी कर्मों से जो मुक्त होती है उसे मोक्ष कहा गया है। मोक्ष में आत्मा अपने मूल गुणों को प्राप्त करती है। अनंत ज्ञान को, अनंत प्रदर्शन को, अनंत आनंद को और अनंत शक्ति को भी। इसलिए हर आत्मा की जो प्यास है, उसकी जो भूख है और जो लक्ष्य है वह है मोक्ष। इसी को भारतीय संस्कृति में जो 4 पुरुषार्थ बताये हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष…मोक्ष को परम पुरुषार्थ कहा गया है। जैसे हर नदी सागर में मिलना चाहती है, वैसे ही हर आत्मा मोक्ष रुपी उस अविनाशी, उस शाश्वत पद को प्राप्त करना चाहती है, उसे पाना चाहती है.”
रिलिजन वर्ल्ड ने जब दीक्षा ग्रहण करने के बाद जीवन में आये बदलाव की जानकारी विवेक मुनि जी से लेनी चाही तो उन्होंने बताया, “दीक्षा एक प्रक्रिया है, लेकिन बदलाव धीरे-धीरे दीक्षा में जो संकल्प दिया जाता है, जिस मार्ग पर चलने के लिए हम तैयार होते हैं, उस मार्ग की जो साधना है, उस साधना को जब हम सतत करते हैं, उसका अभ्यास करते हैं। मूल रूप से हम बात कर रहे हैं ज्ञान और ध्यान की साधना, ज्ञान हमें बंधनॉन से मुक्त करता है, अज्ञानता के अन्धकार को मिटाता है, ज्ञान रुपी जोत, ज्ञान रुपी प्रकाश हमारे जीवन में लाता है। और हमारे जीवन में संयम की साधना सतत चलती है। तब हम धीरे धीरे अपने संन्यास के मार्ग पर अपने कर्मों को आगे बढाते हुए उस मोक्ष पल की साधना में हम आगे बढ़ते हैं और वह जो मोक्ष की स्थिति है, मोह के जो बंधन हैं उनसे धीरे धीरे अंशों में हमारी आत्मा मुक्त होती जाती है, उतने ही अंशों में हम मोक्ष की ओर आगे बढ़ते जाते हैं”।
विवेक मुनि जी ने बताया कि, “वैराग्य का बहुधा अर्थ हममें से संन्यास को समझते है, लेकिन इसका विस्तृत रूप अगर हमे जानना व समझना है तो प्रभु भक्ति का मार्ग इसके लिए श्रेष्ठ है। हमारी संस्कृति सिखाती है कि जब हम इस संसार के भौतिक पदार्थो को तुच्छ समझ कर सर्व जीव कल्याण मार्ग पर चल समस्त मोह को त्याग देते है तो वह वैराग्य का ही एक रूप होता है। अर्थात संसार में रहते हुए भी बिना किसी सन्यास के अपने हृदय कें अंतर से लोभ, मोह, माया, काम आदि विकारों को त्याग कर कार्य करना ही वैराग्य है”।
लेकिन बच्चों और युवाओं का इतनी कम उम्र में संन्यास धारण करना एक विचारणीय विषय है। जैन धर्म में बच्चों के दीक्षा ग्रहण करने पर मुद्दा तब भी उठा था, जब तेरह साल की जैन समुदाय में जन्मी हैदराबाद की आराधना जो चार माह से व्रत कर रही थी। डाक्टरों के मुताबिक व्रत की समाप्ति के बाद अचानक उसकी तबीयत बिगड़ी थी और दिल का दौरा पड़ने से उसका निधन हुआ था। आराधना की मौत पर बाल अधिकार संरक्षक समूहों में जबरदस्त आक्रोश पनपा था, और यह सवाल उठा था कि आखिर ऐसी लड़की, जिसे कानून वोट डालने का अधिकार नहीं देता या जीवनसाथी चुनने का अधिकार नहीं देता, अर्थात जिसे कानून अल्पवयस्क समझता है, उसे आध्यात्मिकता के नाम पर इस तरह जान जोखिम में डालने की अनुमति दी जा सकती है?
चाहे आराधना का मामला हो या वर्षिल का, इस संबंध में मनोवैज्ञानिकों की राय स्पष्ट है जो बताते हैं कि माता-पिता द्वारा अनजाने से जो दबाव डाला जाता है वह बच्चे को मनोवैज्ञानिक तौर पर पंगु बना सकता है। और जब हम इसमें धर्म को खींच कर लाते हैं तो उसके साथ अपराधबोध भी जुड़ जाता है कि फलां चीज़ की गयी तो उससे क्या लाभ हो सकते हैं.
बच्चे को यह यकीन दिलाया जाता है कि जो वह कर रहा है वह परिवार, समाज की बेहतरी के लिए कर रहा है.
वर्षिल पर लिखे अपने लेख में पत्रकार दमयंती दत्ता बताती हैं वर्ष 2004 में मुंबई में आठ साल की उम्र की प्रियल बागरिचा के जैन साध्वी बनने को लेकर उठे विवाद में बाल अधिकार को लेकर कानूनी मामला भी उठा था। और तब टाटा इंस्टीट्यूट से जुड़े मनोवैज्ञानिकों ने उसकी जांच की थी तब यह बात भी सामने आयी थी कि दीक्षा को लेकर वह बिल्कुल अस्पष्ट थी।
वर्ष 2008 में मुंबई उच्च अदालत की खंड पीठ ने यह कहा भी था कि ‘कोई भी धर्म किसी अल्पवयस्क को साधु नहीं बना सकता है. यह सती प्रथा की तरह खतरनाक मामला है और अल्पवयस्कों को दीक्षा लेने से रोकने के लिए कानून बनाने की जरूरत है’।
रिलीजन वर्ल्ड की राय : हर धर्म के विस्तार के लिए युवाओं के जुड़ाव से ही आगे का मार्ग प्रशस्त होगा। धर्म प्रवर्तकों की बात और ज्ञान को आधार मानकर ही जैन धर्म में अटूट विश्वास के साथ कई परंपराएं आज भी उसी रूप में जारी है। परिवारों की आस्था और गुरुओं की शिक्षा-दीक्षा को ही आज भी जैन धर्म के अनुयायी ईश्वर और मोक्ष प्राप्ति की राह मानते है। कम उम्र में भौतिक जगत की सारी सुविधाएं छोड़कर संन्यास लेना भी गुरु भक्ति और प्राप्त ज्ञान का ही एक व्यवहारगत आचरण है। इसे हमें निजी आस्था, पारिवरिक मूल्यों, समाज की संरचना में अलग भूमिका निभाने की आकांक्षा, धर्म के प्रति सजग समर्पण और एक जीवन में ही आत्मा को परिपूर्ण करने की इच्छा के तौर पर देख सकते है। धर्म की सरल शिक्षा भी व्यवहार के स्तर पर कई जटिल आचरणों के बाद ही किसी के लिए सार्थक बनती है। आज के युवा भौतिक जगत की जटिलताओं और विकृतियों से लड़ने में कई बार खुद को कमजोर पाते हैं। वे धर्म को केवल समाज की वस्तु और खुद के लिए एक जन्मजात पहचान के तौर पर लेेते हैं, परिवार की सोच और क्रिया से वो धर्म के कुछ पहलुओं को जान पाते है। ऐसे में जब धर्म में कुछ नया पाने की चाह उन्हें प्रेरित करती है तो वो गुरु, ज्ञान, परिवार और समाज के सहयोग से संन्यास की राह अपना लेते है। जैन धर्म एक कठिन जीवनचर्या वाली खास परंपराओं को मानने वाला समुदाय है। वो मानव के विकास और उसके प्रकाश में विश्वास रखता है। अपने सामर्थ्य से जैनी हर वो कर्म करना चाहते है जिससे समाज के कुछ दिया जा सके। परिवार के युवाओं को धर्म सेवा के लिए तैयार करना और उनमें कुछ देकर जाने की भावना का विकास करके कठिन संन्यास की राह पर भेजना भी बहुत सारे धर्मावलंबियों के लिए सामान्य आचरण है।