बौद्ध धर्म में बिन सप्तपदी, बिन सिन्दूर और बिन मन्त्रों के होता है विवाह
विवाह संस्कार जीवन में बहुत महत्वपूर्ण संस्कार होता है. इसे पाणिग्रहण संस्कार भी कहा जाता है. दो भिन्न परिवार एक—दूसरे से जीवन भर के लिये सम्बन्धी बनते है.
बौद्ध धर्म में भी विवाह संस्कार होता है लेकिन आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि यह विवाह बिना किसी आडम्बर और मंत्र के संपन्न होता है. याह्ना मन्त्र क्र स्थान पर प्रतिग्यपना होता है और प्रमाणपत्र भी मिलता है वो भी निशुल्क.
आइये जानते हैं क्या कारण है बिन सप्तपदी, सिन्दूर और मंत्रोच्चारण के विवाह करने का-
क्यों नहीं होती सप्तपदी
बाबा साहब डॉ अंबेडकर संपूर्ण वांग्मय खंड 8 पृष्ठ 303-304, खंड 7 पृष्ठ 38 में डॉ. आंबेडकर उल्लेख करते हैं कि, “आर्यों में एक ऐसा वर्ग था जिन्हें देव कहा जाता था जो पद और पराक्रम में श्रेष्ठ माने जाते थे.ये देव आर्य स्त्रियों के साथ पूर्वस्वादन को अपना आदेशात्मक अधिकार समझने लगे थे.स्त्री का उस समय तक विवाह नहीं हो सकता था जब तक की वह पूर्व स्वादन के अधिकार से मुक्त नहीं कर दी जाती थी.तकनीक भाषा में से अवदान कहते हैं.वधु का भाई कहता था कि यह कन्या (उसकी बहन) अग्नि के माध्यम से आर्यमान को अवदान अर्पित करती है.आर्यमान इस पर अपना अधिकार छोड़ दें और वर के अधिकार को बाधित ना करें.इस अवदान के पश्चात अग्नि की प्रदक्षिणा होती है जो सप्तपदी कहलाती है. इसके पश्चात विवाह संबंध वैध और उत्तम माना जाता है. सप्तपदी इस बात का प्रतीक है कि देव ने कन्या पर से अपना पूर्वाधिकार त्याग दिया है और अवदान से संतुष्ट है. यदि देव वर और कन्या को सात पग चलने देते हैं तो यह समझा जाता था कि देवों को मुआवजा स्वीकार है और उसका अधिकार समाप्त हो गया है और कन्या दूसरों की पत्नी बन सकती है. सप्तपदी प्रत्येक विवाह में आवश्यक थी. यह इस बात का द्योतक है कि ऐसी अनैतिकता देवों और आर्यों में किस हद तक मौजूद थी.
सिन्दूर क्यूँ नहीं चढ़ता
बाबा आंबेडकर कहते हैं, “मुगल आक्रमणकारी भी अपने साथ औरतें लेकर नहीं आए.वह विजेता थे ऐसी दशा में उन्होंने हिंदु युवतियों को अपनी हवस का शिकार बनाया. आर्य ब्राह्मणों ने तत्कालीन उत्पन्न परिस्थिति का सामना करने के लिए कम उम्र की बालिकाओं के माथे पर विवाह के प्रतीक चिह्न के रूप में सिंदूर को स्थान दिया. इस प्रकार बाल विवाह प्रथा का जन्म हुआ. मुगल किसी विवाहित स्त्री के साथ छेड़खानी नहीं करते थे. उन्हें जब यह पता चल गया कि जिस युवती के माथे पर सिंदूर लगा है वह विवाहिता है तो वह उसे बिल्कुल स्पर्श नहीं करते थे. आज जब भारत स्वतंत्र हो चुका है हमारे सामने ना अंग्रेज है ना आक्रमणकारी मुगल फिर इस सिंदूर प्रथा का क्या औचित्य?
यह भी पढ़ें-Successful completion of the 4th Dhamma Padh Yatra (Walk for World Peace)
सत्यशोधक समाज ने प्रतिपादित की बौद्ध विवाह पद्धति
राष्ट्रपिता फूले ने 1876 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की. सत्यशोधक समाज के माध्यम से ज्योतिराव फूले ने ऐसी विवाह पद्धति का निर्माण किया जिसमें कम से कम समय और पैसे में विवाह संपन्न हो.
बौद्ध विवाह पद्धति
बौद्ध विवाह संस्कार में किसी धम्मचारी द्वारा वर वधु को त्रिशरण और पंचशील ग्रहण कराया जाता है,इस पद्धति से विवाह में वर-वधू को प्रमाण पत्र भी दिया जाता है प्रतिज्ञापन के तुरंत बाद वर-वधू एक दूसरे के गले में फूलों की माला डालते हैं उपस्थित जनसमूह वर-वधू पर फूलों की वर्षा करता है,और मंगल कामनाओं के साथ बिना किसी ढोंग और कर्मकांड के शादी संपन्न होती है.
1— बौद्ध धम्म में फिजूलखर्ची मना है अतः तिथि का निर्धारण ऐसे समय में किया जाना चाहिए जब सामान्यतः लगन का समय नहीं हों. इस प्रकार धन के अपव्यय को रोका जा सकता है.
2— बहुत अधिक गर्मी अथवा बहुत अधिक ठंड अथवा बरसात के मौसम में विवाह की तैयारी करने में कठिनाई हो सकती है अतः विवाह की तिथि ऐसे समय निश्चित करनी चाहिए जब न ज्यादा ठंड हो न ज्यादा गर्मी.
3— बौद्ध धम्म के त्योहार (महत्वपूर्ण पूर्णिमा) के दिन विवाह की तिथि रखने से बचना चाहिये. क्यों कि इन दिनों बुद्ध विहार रिक्त नहीं मिल पायेंगे साथ ही योग्य भिक्क्षु संघ की भी उपलब्धता कठिन होगी.
4— दोनों परिवारों की आम सहमति से सार्वजनिक अवकाश (शनिवार,रविवार) के दिन विवाह संस्कार किया जाना सबसे उचित होगा.
5— विवाह की तिथि से एक या दो दिन पूर्व भिक्क्षु संघ को घर पर बुलाकर परित्राण पाठ कराना चाहिये.
6— विवाह संस्कार बुद्ध—विहार में भी किया जा सकता है.
7— बौद्ध परम्परा में, विवाह संस्कार दिन के समय किया जा सकता है यदि किसी कारणवंश संस्कार रात्रि में सम्पन्न किया जाना है तब यह कोशिश की जानी चाहिये कि विवाह संस्कार रात्रि 10:00—11:00 बजे तक अवश्य ही सम्पन्न हो जाय़े| इससे अधिक देर होने पर सम्भव है कि विवाह में उपस्थित मेहमान चले जाये, और इस प्रकार वर—वधु उनके आशीर्वाद से वंचित रह जायेंगे. साथ ही वे लोग जो बौद्ध परम्परा से विवाह संस्कार पहली बार देख सकते थे उससे वंचित रह जायेंगे।
पूजा की सामग्री
1. भगवान बुद्ध की मूर्ति (मूर्ति बहुत छोटी नहीं होनी चाहिये, तथा मूर्ति सुन्दर होनी चाहिये)
2. यदि मूर्ति उपलब्ध न हो तो मढ़ी हुई तस्वीर भी पूजा हेतु प्रयोग की जा सकती है.
3. मूर्ति को रखने के लिए मेज अथवा आसन, भिक्क्षु संघ के लिये आसन
4. श्वेत वस्त्र (मेज पर बिछाने के लिये) यथा संभव नया
5. मोमबत्ती व अगरबत्ती
6. पुष्प व पीपल के पत्ते
7. सफेद धागा
8. मिट्टी का छोटा घड़ा अथवा धातु का लोटा (स्वच्छ जल भरा हुआ.)
9. फल
10. खीर /भोज्य पदार्थ/ग्लानपच्च सामर्थ अनुसार तथा श्रद्धानुसार
11. जयमाल वाले हार,
12. मिष्ठान.
13. गीत—संगीत
पूजा की विधि
वर वधु दोनो के लिये श्वेत वस्त्र श्रेष्ठ है, यदि श्वेत वस्त्र न हो तो उससे मिलती जुलत वस्त्र होने चाहिए. बौद्ध देशो में विवाह संस्कार श्वेत वस्त्रों में ही संपन्न होता है. दोनो के माता—पिता भी यथासंभव श्वेत वस्त्र ही धारण करें. स्टेज पर केवल मुख्य—मुख्य लोगों को बैठना चाहिए. शेष लोग स्टेज के नीचे बैठ सकते हैं. स्टेज पर उपासकों को इस प्रकार बैठना चहिए कि नीचे बैठे लोगों को स्टेज पर हो रहा कार्यक्रम भली प्रकार दिखता रहे.
विवाह प्रक्रिया— (समर्पण—विधि)
बौद्ध परम्परा में कन्यादान नहीं होता है क्योंकि पुत्री कोई वस्तु नहीं है. दूसरे यह सार्वभौमिक सत्य है कि दान दी हुयी वस्तु पर दानदाता का अधिकार नहीं रहता. बौद्ध धम्म में ऐसा नहीं है कि विवाह के बाद पुत्री से कोई सम्बंध ही न रहे. यही कारण है कि बौद्ध धम्म में इसे समर्पण विधि कहा गया है. बौद्ध भिक्क्षु वर के पिता का दाहिना हाथ सीधी अवस्था में और इसके ऊपर वर का दाहिना हाथ इसी अवस्था में रखवायें वर के ऊपर कन्या का दाहिना हाथ उल्टी अवस्था में रखवायें. कन्या के पिता का दाहिना हाथ उसी अवस्था में रखवायें. यदि वर की माता उपस्थित हों तो उनका हाथ वर के पिता के हाथ के ऊपर और यदि कन्या की मां उपस्थित हो तो उनका दाहिना हाथ कन्या के हाथ के ऊपर रखवायें. हांथों के नीचे एक थाल रख दें.
(1) कन्या के मां—बाप द्वारा समर्पण— त्रिरत्न (बुद्ध—धम्म संघ) की पावन स्मृति व भावना कर , उपस्थित समाज को साक्षी मानकर हम अपनी प्रिय पुत्री को अपकी पुत्र वधु के रूप में समर्पित करते हैं. आज से इसके सुख—दुख एवं सभी प्रकार माता—पिता तुल्य संरक्षण का उत्तरदायित्व आपको सौंपते हैं. हमें आशा और विष्वास है कि हमारा यह सम्बन्ध मधुर और दोनों परिवारों की सुख—समृद्धि में सहायक होगा.
स्टेज पर बैठ सभी लोगों द्वारा साधु—साधु—साधु कह कर अनुमोदन करना चाहिए.
(2) वर के माता—पिता द्वारा अनुमोदन— त्रिरत्न (बुद्ध—धम्म संघ) की पावन स्मृति व भावना कर उपस्थित समाज को साक्षी मानकर आपके द्वारा सौंपे गये उत्तरदायित्व को सहष स्वीकार करते हैं कि अपनी इस पुत्रवधु के सुख संरक्षण का पूरा ध्यान रखेंगे. हमें भी आशा और विश्वास है कि हमारा यह सम्बन्ध मधुर और दोनों परिवारों की सुख समृद्धि में सहायक होगा.
स्टेज पर बैठ सभी लोगों द्वारा साधु—साधु —साधु कह कर अनुमोदन करना चाहिये.
(3) कन्या द्वारा समर्पण— त्रिरत्न (बुद्ध धम्म संघ) की पावन स्मृति के साथ उपस्थित समाज को साक्षी मानकर मैं अपने को श्री…………………..जी की पत्नी रूप में समर्पित करती हूं तथा इन्हें परिरूप में स्वीकर करके जीवन भर इनके साथ रहने
स्टेज पर बैठ सभी लोगों द्वारा साधु—साधु—साधु कहकर अनुमोदन करना चाहिये.
(4) वर द्वारा अनुमोदन— त्रिरत्न (बुद्ध धम्म संघ) की पावन स्मृति व भावना कर उपस्थित समाज को साक्षी मानकर मैं अपने को ……………..जी को पति के रूप में समर्तित करता हॅूं तथा इन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करके, जीवनभर इनके साथ रहने की प्रतिज्ञा करता हॅूं.
स्टेज पर बैठ सभी लोगों द्वारा साधु—साधु—साधु कहकर अनुमोदन करना चाहिये.
तत्पश्चात् भिक्क्षु निम्न गाथाओं को सस्वर पाठ करते हुये लोटे का जल एकत्रित हाथों पर इस तरह से डालते रहे कि जल नीचे थाल में एकत्रित होता रहे. थाल का जल पेड़ पौधों में डलवा देना चाहिये.
इच्छितं पच्छितं तुरहं रिवप्पमेव समिज्झुत.
सब्बे पूरेन्तुचित्त संकप्प चन्दो पन्नरसो यथा..
सब्बीतियों विवज्जन्तु सब्ब रोगो विनस्सतु.
मा ते भवत्वन्तरायो सुखी दीर्घायुको भव..
भवतु सब्ब मंगलं रखन्तुसब्ब देवता,
सब्ब बुद्धानुभावेन सदा सोत्थि भवन्तुते.
भवन्तुसब्ब मंगलं रखन्तु सब्ब देवता,
सब्ब धम्मानुभावेन सदा सोत्थि भवन्तु,
भवतु सब्ब मंगलं रखन्तु सब्ब देवता,
सब्ब संधानुभावेन सदा सोत्थि भवन्तुते..
इसके पश्चात् हाथों को अलग कर लें और थाली के जल को पेड़ पौधों में डलवा दें.
वर की प्रतिज्ञाएं— बौद्ध भिक्षु द्वारा पांच पवित्र प्रतिज्ञायें ग्रहण करायी जाये.
- मैं अपनी पत्नी का सदा सम्मान करने की प्रतिज्ञा ग्रहण करता हॅूं.
- मैं कभी भी अपनी पत्नी का अपमान नहीं करूंगा और न ही किसी अन्य से अपमानित होने दूंगा ऐसी प्रतिज्ञा ग्रहण करता हॅूं.
- मैं मिथ्या आचरण नहीं करने की प्रतिज्ञा ग्रहण करता हॅूं.
- मैं आपको सम्यक आजीविका द्वारा कमाये धन—दौलत से संतुष्ट रखने की प्रतिज्ञा ग्रहण करता हॅूं.
- मैं आपको अलंकार आदि देकर संतुष्ट रखने की प्रतिज्ञा ग्रहण करता हॅूं.
मैं इन पांचों प्रातिज्ञाओं का पूर्ण पालन करूगा.
वधू की प्रतिज्ञाएं— त्रिरत्न की पावन—स्मृति व भावना कर उपस्थित समाज को साक्षी मानकर मैं प्रतिज्ञा करती हॅूं.
- मैं अपनी पत्नी का सदा सम्मान करने की प्रतिज्ञा ग्रहण करता हॅूं.
- मैं परिजन व परिवार के लोगो की भलि-भांति देख-रेख करने की प्रतिज्ञा गृहण करती हॅूं.
- मैं मिथ्या आचरण से विरत रहकर अपने पति की विश्वासपात्र रहने की प्रतीज्ञा ग्रहण करती हॅूं.
- मैं आपके उपार्जित धन दौलत की रक्षा करने की प्रतिज्ञा गृहण करती हॅूं.
- मैं घर के सभी कार्यों में दक्ष और आलस्य रहित रहने की प्रतिज्ञा गृहण करती हॅूं.
स्टेज पर उपस्थित सभी जाति बंधुओं के हांथों में पुष्प की पंखुड़ियां पकड़ा दी जायें. भिक्क्षु संघ जय मंगल अट्ठगाथा का पाठ करते हैं.
जय मंगल अट्ठागाथा
बाहु सहस्समभि निम्मित सावुधन्तं, गिरिमेखलं उदित घोर ससेन मारं.
दानादि धम्मविधिना जितवा मुनिन्दो, तं तेजसा भवतु ते जयमंगलानि.
मारतिरेक मभियुज्झित सब्बरत्तिं, घोरम्पनालवक मक्खमथद्ध—यक्खं.
खन्ती सुदन्तविधिना जितवा मुनिन्दो, तं तेजसा भवतु ते जयमंगलानि .
नलागिरिं गजवरं अतिमत्ति भूतं, दावग्गि चक्कमसनीव सुदारूणन्तं.
मेत्तम्बुसेक विधिना जितवा मुनिन्दो, तं तेजसा भवतु ते जयमंगलानि .
उक्खित्त खग्गमतिहत्थ सुदारूणन्तं, धावन्ति योजनपथं अंगुलिमालवन्तं,
इद्धीभिसंखत मनो जितवा मुनिन्दो, तं तेजसा भवतु ते जयमंगलानि.
कत्वानि कट्ठमुदरं इव गब्भिनीया, चिञ्चाय दुट्ठवचनं जनकाय मज्झे.
सन्तेन मोम विधिना जितवा मुनिन्दो, तं तेजसा भवतु ते जयमंगलानि.
सच्चं विहाय—मतिसच्चक वादकेतुं, वादाभिरोपितमनं अतिअन्धभूतं.
पञ्ञापदीपजलितो जितवा मुनिन्दो, तं तेजसा भवतु ते जयमंगलानि.
नन्दोपनन्द भुजगं विवुधं महिद्धिं, पुत्तेन थेर भुजगेन दमापयन्तो.
इद्धूपदेस विधिवा जितवा मुनिन्दो, तं तेजसा भवतु ते जयमंगलानि.
दुग्गहदिट्ठ भुजगेन सुदट्ठ हत्तं, ब्रह्मं विसुद्धि जुमिद्धि, वकाभिधानं.
ञाणगदेन विधिना जितवा मुनिन्दो, तं तेजसा भवतु ते जयमंगलानि.
एतापि बुद्ध जयमंगल अट्ठागाथा, यो वाचको दिनदिने सरते मतन्दी.
हित्वाननेक विविधानि चुप्पद्ववानि, मोक्खं सुखं अधिगमेय्य नरो सपञञो.
प्रत्येक बार जब तं तेजसा भवतु ते जय मंगलानि के उच्चारण के साथ वर वधू पर पुष्प वर्षा करते हैं. अंत में ”विवाह कार्य सम्पन्नो, वर वधु सुखी होन्तु” का उच्चाण करते हुये महामंगल सुत्त का पाठ किया जाता है. उपस्थित लोग वर—वधु को भेंट—उपहार आदि यदि कुछ देना चाहें तो इस समय दे सकते है. मंगलसूत्र को तिहरा कर वर वधु के हाथ में और वधु वर के हाथ में बांध दे.
वर वधु को माता—पिता तथा सास—ससुर के चरण स्पर्श करते है. तदोपरान्त उपस्थित यान्ति बंधुओं को हाथ जोड़कर नमो बुद्धाय कहते हैं।
@religionworldin